ब्राह्मी की तरंग …

बिन माटी,जलीय कृषि-पद्धति द्वारा…सर्वोत्तम ब्रेन टानिक
ब्राह्मी की तरंग…मस्तिष्क व जीवन के संग

श्रीमदभागवदगीता के 9वें अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा है –
अहम क्रतु: अहम यज्ञ:, स्वधा अहम, अहम औषधम।
मन्त्र: अहम,अहम आज्यम, अहम अग्नि: अहम हुतम ॥ 16/9

अर्थात मैं क्रतु हूँ ,यज्ञ मैं हूँ ,स्वधा मैं हूँ ,औषधि मैं हूँ … … …
शरीर ,और शरीर का पोषण करने वाली औषधियाँ …सभी वे काल स्वयं हैं यदि स्वयं में औषधियाँ भगवान स्वरूप हैं तो इन्हीं में सर्वोपरि है ब्राह्मी(बाकोपा मोनिएरी)। यह स्क्रोफूलेरिएसी प्रजाति से संबंध रखती है। पूर्णतया औषधीय पौधा है ब्राह्मी। आयुर्वेद में मुखयतः स्नायु तन्तुओं के स्वास्थ्य के लिए इसके प्रयोग किए जाने के एक लम्बे इतिहास की ओर इंगित करते हुए गोवर्धन स्थित सिद्ध सिद्धांत योग अकादमी के संस्थापक योगिराज शैलेन्द्र शर्मा ने बताया कि “आयुर्वेद के अनुसार ब्राह्मी को सर्वोतम ब्रेन-टानिक माना गया है। इसका नियमित सेवन करने से मेधा का अत्यधिक व उच्चस्तरीय विकास होने लगता है और असाधारण स्मृति प्राप्त होती है । दिमाग शान्त व शक्तिशाली होने पर पेट की कार्य- प्रणाली भी सशक्त होती जाती है ।“

पृथ्वी पर जीवन पूर्णतया प्रकृति पर आधारित है ,प्रकृति की ममतामयी गोद में मानव-जीवन ने उतरोत्तर विकास को पाया है ।विलियम वर्ड्सवर्थ ने भी व्यक्त किया है कि-“ प्रकृति उन लोगों के साथ कभी विश्वासघात नहीं करती जो उसे दिल से प्रेम करते हैं।‘ भारतीय पुरातन-काल की चिकित्सा-प्रणाली बनस्पति प्रधान ही रही है ,आज भी देश के दूर-दराज के दुर्गम क्षेत्रों के रहवासी विशेष जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते हैं , क्योंकि उनका उन पर विश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कायम है।

आज की तेजी से बदलती केमिकली होती दुनियाँ में रोगमुक्त होने का सबसे आसान उपाय है – प्रकृति,बनस्पतियों-जड़ी बूटियों की ओर लौट जाया जाए,जो कि भारतीय सनातन परंपरा का एक अपरिहार्य हिस्सा रहीं हैं॥ ऐसा ही कुछ मानना है जालंधर निवासी पेशे से न्यूरोथेरपिस्ट रामगोपाल परिहार का,जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से हाइड्रोपोनिक्स अर्थात जलीय-कृषि पद्धति को आधार बनाकर ब्राह्मी जैसी दिव्य औषधि की पैदावार कर,प्रोसेस कर शुद्धतम बाकोपा गोल्ड के नाम से आम जन हेतु बिक्री के लिए उपलब्ध करवाई जा रही है।

हाइड्रोपोनिक्स अर्थात जलीय-कृषि मृदा के बिना बागवानी पौधों की खेती करने की एक अनूठी आधुनिक कला है। ज्ञातव्य है गत 1990 के दशक में अमेरिकी एजेन्सी नासा द्वारा एक अन्तरिक्ष स्टेशन परशून्य गुरुत्वाकर्षणके वातावरण में एयरोपोनिक बीन की रोपाई जैसे कार्य को करने से अन्तरिक्ष में स्थायी कृषि की संभावनाएं खुलीं अतः निसन्देह यह जल-संरक्षण और फसल उत्पादन का एक कालातीत और गतिशील तरीका है ।

अंतरंग बातचीत में रामगोपाल ने बताया कि उन्हें बाजार में ब्राह्मी औषधि का विशुद्ध रूप मिला ही नहीं क्योंकि इसका चूर्ण बनाने की प्रकिर्या में 30-35%मिलावट का ही हिसाब-किताब मिला, जो कि मुझे बिलकुल मान्य नहीं था। अतः मैंने जलीय-कृषि पद्धति को अपनाकर इस औषधि का विशुद्ध रूप प्राप्त करने की ठानी, जिसका परिणाम आपके सामने बकोपा गोल्ड के रूप में है। अब तक लगभग एक हजार प्रयोक्ताओं द्वारा इसे प्रयोग में लाया गया है और प्रत्येक की शरीर-अवस्था के अनुरूप कमोवेश स्वास्थ्य सम्बन्धी परिणाम बहुत ही उत्साहजनक पाये गए हैं ।

उन्होंने इस खेती की प्रासंगिकता को उकेरते हुए कहा कि कृषि-कार्यों से अभी तक अभिप्रायःकेवल यही था कि खेत तैयार कर फसलें,पेड़-पौधे उगाने व उनकी उपयुक्त पर्याप्त वृद्धि के लिए सूर्य के प्रकाश के साथ साथ खाद मिट्टी-पानी जरूरी होता है। किन्तु आज निरन्तर बढ़ती जनसंख्या,शहरीकरण और खेती लायक  घटती जमीन, बेतरतीब तथाकथित आधुनिकता के इस युग में सिर्फ तीन चीजों:-पानी,पोषक तत्व और सूर्य के प्रकाश से पौधों या फसलों की भरपूर पैदावार की जा रही है। यही हाइड्रोपोनिक्स पद्धति है, यह शब्द दो ग्रीक शब्दों हाइड्रो अर्थात पानी तथा पोनोस अर्थात कार्य से मिलकर बना है ।

इस तकनीक के द्वारा 10 एकड़ की खेती एक एकड़ में कर सकते हैं पारंपरिक कृषि की तुलना में न्यूनतम स्थान घेरने वाली,लगभग 75-80%कम पानी और सुविधानुसारसरल व सहज डिजाइन का प्रयोग करके वर्टीकल लाइनों में निर्धारित पाइपों के जाल की यह पद्धति लगभग आधे समय में भरपूर पैदावार देने में भी सक्षम है । इस फसल में 0% वेस्ट होती है एवं इस पद्धति द्वारा हम अपनी फसल को विषैले प्रदूषण, कीट-पतंगों से नुकसान आदि से बचाकर फसल की कवालिटी को बेहतर दे सकते हैं ।

सामान्यतः पौधे जमीन से आवश्यक पोषक-तत्व ग्रहण करते हैं लेकिन इस तकनीक में यह कार्य एक विशेष प्रकार के घोल को डालकर किया जाता है । नाइट्रोजन , फास्फोरस, पोटाश, मेग्नीशियम, केल्शियम, सल्फर, आयरन आदि तत्वों के एक खास अनुपात से निर्मित सभी जरूरी खनिज व पोशक  तत्वों से बने इस घोल की एक निर्धारित मात्रा(एक माह में एक या दो बार कुछ बूंदें ही डालनी पड़तीं )ही डाली जाती है,इससे पौधे पल्लवित व पुष्पित होते रहते हैं । इन पौधों में मिट्टी या जमीन का सम्पर्क न होने के कारण बीमारियाँ कम ही होतीं हैं, कीट-नाशकों का प्रयोग भी नहीं होता । प्रायः 28-30 दिनों में तैयार होने वाला गेहूं का पौधा इस पद्धति में मात्र 8-9 दिन में तैयार हो जाता है । कम जगह में इस तकनीक के द्वारा खेती करने से हमारी लेबर और मशीनरी कॉस्ट भी बहुत कम हो जाती है।

ऐसे लाभों वाली तकनीक का उपयोग तेजी से फैल क्यों नहीं रहा ? पूछने पर इस युवा उधमी रामगोपाल परिहार के अनुसार  परंपरागत बिधि की अपेक्षा प्रारम्भिक खर्चा सबसे बड़ी चुनौती है, आज इस तकनीक द्वारा खेती करने के लिए सबसे बड़ा मसला आता है इसकी शुरुआती लागत जिस वजह से हर कोई इसको इस्तेमाल नहीं कर पा रहा,उदाहरण के लिए अगर हम बात करें एक एकड़ भूमि पर इस तकनीक का सेटअप करने पर लगभग 50 लाख रुपए का खर्च आता है मगर इसको अगर हम 10 एकड़ भूमि में किन्हीं दो वर्षों के दौरान परंपरागत खेती से तुलना करें तो यह एक जैसा ही लगता है यथा  परंपरागत खेती से हटकर इस हाइड्रोपोनिक टेकनीक में नए इन्फ्रास्ट्रक्चर के अन्तर्गत नेट हाउस पॉली हाउस या हाइड्रोपोनिक के लिए जो पाइपिंग की फिटिंग का खर्चा एक बार आता है और अगर आप कॉन्ट्रैक्ट खेती या जिस भी जड़ी-बूटी पौधों को उगाना चाहते हैं उसकी खरीद करने के लिए आपके पास नियमित खरीददार है तो आप इस तकनीक पर जो आपका खर्चा हुआ है उसको पहले दो-तीन साल में ही पूरा कर सकते हैं और यह जो ढांचा खड़ा किया जाता है उसकी जो लाइफ है वह 5 से 7 साल तक की रहती है इसका मतलब यह है कि अगर हम एक बार इन्वेस्ट करते हैं तो 2 साल के बाद आपका खेती करने का खर्चा लगभग 80 परसेंट कम हो जाएगा।

भारत सरकार द्वारा इस तरह की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए सब्सिडी की स्कीम भी चलाई जा रही हैं अगर हम हिमाचल प्रदेश की बात करें तो नेट हाउस फार्मिंग के लिए 70 से 80% तक इस पर सब्सिडी दी जा रही है और भारत में अलग-अलग प्रांतों में इस तरह की खेती पर अलग-अलग सब्सिडी दी जाती है पर इस प्रकार की खेती की सही प्रकार से जागरूकता और ट्रेनिंग ना होने की वजह से यह ठीक प्रकार से प्रफुल्लित नहीं हो पा रही ।

इस क्षेत्र में पर्याप्त रिसर्च व आम जन को जानकारी होनी चाहिए यानि लोगों/किसानों की मनोवृति में बदलाव लाना भी चुनौती भरा कार्य है ।

आज विश्व भर में जिस प्रकार से भारत की औषधियों,योग, और परंपरागत मेडिसिन का डंका बज रहा है उसी के अंतर्गत दुनिया भर में आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां और दवाइयों की मांग भी तेजी के साथ बढ़ रही है अगर आज हम कॉन्ट्रैक्ट खेती के अंतर्गत डिमांड के अनुसार कुछ जड़ी बूटियों की खेती इस तकनीक द्वारा करें तो आप अपने लगाए जाने वाले प्रोजेक्ट की कॉस्ट को 2 सालों के भीतर ही पूरा कर सकते हैं । आज जरूरत है इस तरह के लो कॉस्ट खेती-तकनीक की जो छोटे से छोटा किसान भी इसको कर सके और सरकार द्वारा बिना किसी झंझट व आसान नियम-शर्तों पर इसको प्रोत्साहन दिया जाए तो आज का नौजवान नौकरी की बजाए अपने छोटे से खेत से भी साल भर में 5 से 10लाख रुपए कमा सकता है, तो आयें! देश को फिर से कृषि क्षेत्र में विश्व में नंबर वन पर बनाने में अपना योगदान दें और इस टेक्निक के द्वारा हम स्वयं रोजगार पैदा कर सकेंगे और आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की पैदावार करके हम अपने देश को स्वस्थ रहने में अपना योगदान दे सकेंगे।

चन्द्रकान्त पाराशर

(वरिष्ठ लेखक व मीडिया विशेषज्ञ)
cknamrta@yahoo.co.in

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