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यूँ ही……मंटो की याद में…..सितारा देवी के बहाने सआदत हसन मंटो : गलीच गलियों का अद्भुत शोधकर्ता

अगर आपने दुनिया भर का साहित्य पढ़ा है पर सआदत हसन मंटो को नहीं पढ़ा है तो निश्चित मानिए आपके अध्ययन में अवश्य कुछ कमी रह गयी है. जब आप उसे पढेंगे तो इस बात की तस्दीक खुद-ब-खुद हो जाएगी.

सआदत हसन मंटो का जन्म ग्यारह मई 1912 में लुधिआना के समराला में, पंजाब में हुआ था. मंटो के पिता वकील थे. पढ़ाई-लिखाई में फिस्सड्डी मंटो की आरंभिक शिक्षा अमृतसर के मुस्लिम हाई स्कूल में हुई जहाँ उर्दू में कमज़ोर होने की वजह से उन्हें मैट्रिक की परीक्षा में दो साल रुकना पड़ा. बक़लम मंटो “उसके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तगीर थे और उसकी वालिदा बेहद नर्म दिल.

इन्हीं दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं.”उन्हीं दिनों के आस-पास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिल कर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था. “यह क्लब सिर्फ़ 15-20 रोज़ क़ायम रह सका था, इसलिए कि उसके पिता ने एक रोज़ धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और साफ़ शब्दों में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शग़ल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं.

”क्रांतिकारी गतिविधियां बराबर जल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे. दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन वालिद की सख़्तीगीरी के सामने वह मन मसोसकर रह जाता.आख़िर कार उसका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया. उसने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सातसाल के बच्चे की नज़र से देखा गया है. इसके बाद कुछ और अफ़साने भी उसने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखे.1932 में मंटो के वालिद का देहांत हो गया. भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी.

मंटो ने अपने कमरे में वालिद के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा.”ज़ाहिर है कि रूसी साम्यवादी साहित्य में उसकी दिलचस्पी बढ़ रही थी. इन्हीं-दिनों उसकी मुलाक़ात अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उसे रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उसने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया.अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उसने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे “द लास्टडेज़ ऑफ़ एकंडेम्ड” का उर्दू में तर्ज़ुमा किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ.यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका तर्जुमा करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है. अगर मंटो के अफ़सानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था.

विक्टर ह्यूगो के इस तर्जुमे के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का तर्जुमा शुरू किया. इस ड्रामे की पृष्ठभूमि 1905 का रूस है और इसमें ज़ार की क्रूरताओं के ख़िलाफ़ वहाँ के नौजवानों का विद्रोह ओजपूर्ण भाषा में अंकित किया गया है. इस ड्रामे का मंटो और उसके साथियों के दिलों-दिमाग पर ऐसा असर हुआ कि उन्हें अमृतसर की हर गली में मॉस्को दिखाई देने लगा.दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया.इन तमाम अनुवादों और फ्राँसीसी तथा रूसी साहित्य के अध्ययन से मंटो के मन में कुछ मौलिक लिखने की कुलबुलाहट होने लगी, तो उसने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है.मंटो अब इस दुनिया में नहीं हैं किन्तु अब भी ऐसे लोग इस दुनिया में हैं जिनकी शक्लो-सूरत को मंटो की कलम ने स्याह कर दिया था.

चलते-चलते आपको बता दूं कि मुझे राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार, पुणे से सितारा देवी की फिल्मोग्राफी लिखने की पेशकश हुई. सितारा देवी, बनारस की ही जीवट की नृत्यांगना हैं और मुग़ले-आज़म के निर्माता निर्देशक के आसिफ की पहली पत्नी रह चुकी हैं. जो उनसे संपर्क में हैं वो बतला सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व किस प्रकार का है.बात-चीत करके मैं उनसे मिलने मुंबई पहुंचा तो उन्होंने मुझ से मिलने से ही इनकार कर दिया. उन्हें मुझ से पैसे चाहिए थे. खैर, मैं दिल्ली लौट आया, मैंने और अध्ययन किया तो पाया कि मंटो ने सितारा देवी और उसकी बहनों पर खासा कुछ लिखा है. उसे पढने के बाद मैंने फिर सितारा देवी से बात की और मंटो द्वारा उनके बारे में लिखे गए लेख का ज़िक्र कर दिया. इसके बाद सितारा देवी काफी देर तक मंटो के बारे में ऊट-पटांग बोलती रहीं.

हाँ, इस प्रकरण के बाद यह अवश्य हुआ कि वे आशा से अधिक विनम्र हो गयीं.मंटो ने खुद अपने बारे में तफसील से लिखा है “मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाताहूँ… मैं क्यों पीता हूँ… लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता.पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ.

अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ. हो सकता है, फ़ाका कशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है. हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए. यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता.लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं. मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है. मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ.

रोटी और कला का संबंध प्रगट रूपसे अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है. वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है. इसको इबादत चाहिए. और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है.मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उस केलिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़ कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है.

किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा. इस बज़ाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा.चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं होसकती. मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं.

उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ – ये सब मुझे भाती हैं – मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ. सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि, यह खुदा जितना बड़ा अफसाना साज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है.मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है. अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए. पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पायाहूँ.

यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बद परहेजियों की भेट चढ़ा चुका हूँ. अब तो यह हालत है-मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल मेंरहता हूँ.मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है. अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है. किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस.मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? यह ‘क्योंकर’ मेरी समझ में नहीं आया. ‘क्यों कर’ का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है – कैसे और किस तरह?

अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ. यह बड़ी उलझन की बात है. अगरमें “किस तरह” को पेशनज़र रखूं, को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाताहूँ. कागज़-कलम पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ. मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं. मैं उनसे बातें भी करता हूँ. उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए “सलाद” भी तैयार करता हूँ. अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ.अब ‘कैसे’ सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारताहूँ.अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना ‘क्यों’ लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है.मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.

मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी-कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं.जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी.अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती. मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए. कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूंकता रहता हूँ मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है. आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ.अन लिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका हूँ. इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है. करवटें बदलता हूँ. उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ. बच्चों का झूला झुलाता हूँ. घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ.

जूते, नन्हे-मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ. मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ. जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता.सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है. मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता. लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ.मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ.

उन पर कोई जादू कर रहा हूँ. माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया. किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ.अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई उसने मुझसे यह कहा है, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए.”मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछल कर बाहर आ जाता है.मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ – मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?”

सुधेन्दु ओझा 9868108713/7701960982