दृश्य और परिदृश्य : कविता

जो दिखता है
या दिखाया जाता है
आवश्यक नही ;
वो सत्य और उचित हो
या सामयिक भी हो।
जो हम देखते हैं ;
वो तो महज दृश्य है।
क्या है दृश्य के पार ?
क्या होगा दृश्य के बाद?
क्या पता , किसे पता ?
इसलिये आवश्यक है ;
दृश्य देखते समय
बीच मे कभी कभी
गर्दन घुमाते रहना
अनुभव करते रहना
अपने आस -पास का
और चारों तरफ का
और देखते रहना
केवल दृश्य नही
परिदृश्य भी।


( ब्रजेश श्रीवास्तव )

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