चुनावी मौसम मे गांव के गरीब की दुविधा

हम गांव के छोट आदमी समझ न पायन बात।
आज काहे ई बड़ा आदमी हमरे घर है खात।

वकरे साथे कई आदमी लिये हैं साफ बिछौना।
मिला रहा हमहुक ऐसै जब आवा रहा है गौना।

आपन थरिया गिलास और आपन लिये कटोरी।
हम सोचा का हमरे साथे आज यनहूं खइहैं भौरी।

हमरे साथ ही हमरे अंगनम बैठ गये सब लोग।
हम सोचा कि इनके साथे हमहूं ली सुख भोग।

मटर पनीर के शब्जी आवा चावल और कचौड़ी।
खाइन सब थोड़ा सा ही पर करके छाती चौड़ी।

हमहूं साथ मा बैठ रहेन सहमा सा रहेन डरान।
लड़के बच्चे सब कोनेम बैठा देखंय आँखी तान।

फोटू खिंचा बना वीडियो और छपा अखबार।
साहेब ने आज तोड़ दिया है सामाजिक दीवार।

साथ मा खाना खाय लिये पर दिल से तो है दूरी।
मन ही मन मा समझ गये हम उनकय ई मजबूरी।


(ब्रजेश श्रीवास्तव)

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