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रेडिकल नारीवाद का प्रकृति विरूद्ध दर्शन : एक विश्लेषण-राजेश पाठक

आधुनिक रेडिकल नारीवादी सिद्धांत की उपज 1949 में प्रकाशित फ्रांसीसी अस्तित्ववादी दार्शनिक सिमन द बाऊवार की पुस्तक “द सेकेंड सेक्स” है जिसने पुरुष संस्कृति के मूल्यों को चुनौती दी।

अति नारीवादियों  का मानना है -‘स्त्री को उसके संपूर्णता के साथ स्वीकारने का साहस दिखाना ही होगा।’  इस संदर्भ में तथ्य यह है कि उन्हें इस बात का भान होना चाहिए कि नारी अपने आप में तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक वह पुरूष के साथ तन-मन से संबद्ध न हो जाए। परंतु इसका आशय यह बिल्कुल नहीं कि पुरूष नारी के बिना पूर्ण है। सच कहूं तो यहां बात पूर्णता या अपूर्णता की न होकर निम्नतर या श्रेष्ठतर की है जिसे नारीवादी सहज भाव से अभिव्यक्त करते हैं। अति नारीवादी सोच सामान्य एवं सहज भाव से जिंदगी गुजार रही नारियों के मस्तिष्क में पुरूष वर्ग के विरूद्ध जबरन ठूंस दिया जाने वाला एक दर्शन मात्र है जिसे आज की प्रबुद्ध स्त्रियां महसूस करने लगी हैं। उन्हें लगने लगा है कि निम्नतर और श्रेष्ठतर की प्रास्थिति विभिन्न काल, समय एवं अवस्थाओं के अनुरूप बदलते रहती है।  अफसोस कि अति नारीवादी स्त्रियों के सर्वस्व न्योछावर करने के सहज, प्राकृतिक गुण को ‘पुरूषों का दासत्व स्वीकारना’ कहते हैं। न्यौछावर दासत्व नहीं ‘अपनत्व’ एवं ‘स्वत्व’ का बोध कराता है जिसकी तात्विक अनुभूति विरले ही  कर पाते है। 

अति नारीवादियों द्वारा यह भी तर्क दिया जाता रहा है कि स्त्री स्वयं के प्रकृति की सर्वोच्च रचना होने के एहसास से अछूती रही, बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। ज्ञात हो कि स्त्री, पुरूष की भांति ही प्रकृति की एक रचना है न कि सर्वोच्च रचना, जिन्हें स्थिति एवं परिस्थिति के अनुसार निम्न या सर्वोच्च-दोनों ही अवस्थाओं से गुजरने का अवसर सदैव मिलता रहता है। कभी स्त्री तो कभी पुरूष एक दूसरे से निम्नतर या श्रेष्ठतर प्रास्थिति को प्राप्त करते रहते हैं। यह प्रास्थिति कभी भी स्थाई प्रकृति की नहीं होती क्योंकि समय एवं काल गतिमान होता है। समय के साथ साथ परिस्थितियों, सामाजिक रचनाओं- संरचनाओं में क्रमिक एवं मौन क्रांति सदैव होते रहती है जिसे निकट दृष्टिदोष वाला व्यक्तित्व सहजता एवं सरलता से महसूस नहीं कर पाता है एवं विभ्रम की स्थिति में रह जाता है। इतना ही नहीं, अति नारीवादी दर्शन के समर्थकों का कहना है – ’’स्तन स्त्री काया के अलंकार हैं, आभूषण है। उसके आकर्षण का केन्द्रक है।”

 मैं जानता चाहता हूं कि क्या वे बता सकते हैं कि स्त्रियों के उस आभूषण के प्रति किसके आकर्षित होने की बात की जाती है ? मेरा मानना है कि उस आभूषण के प्रति अन्य स्त्रियां एवं अन्य पुरूष, दोनों ही आकर्षित हो सकते हैं परंतु विपरीत लिंगों का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण भी सहज एवं प्राकृतिक गुणधर्म वाली बात होती है।

मैं स्त्रीवादी एवं पुरूषवादी, दोनो ही सोच को प्रकृति विरूद्ध मानता हूं। सोच मानवतावादी ही स्वीकार्य होनी चाहिए और मानववादी सोच दोनों के आपसी सामंजस्य, समर्पण एवं त्याग जैसे अति संवेदनशील गुणों की पैरवी करती है। 

मानव सभ्यता के  प्रारंभ में मातृसत्तात्मक व्यवस्था ही समाज में प्रचलित हुई। उस समय समाज की मौलिक विशेषताओं में अस्थाई विवाह संबंध, स्त्री के माध्यम से संबंधों की पहचान करना तथा संपत्ति और शक्ति पर केवल स्त्रियों का उत्तराधिकार शामिल थे। अधिकांश आदिम जातियां, खासकर आस्ट्रेलिया और मलय द्वीप समूहों की आदिम जातियां, अपने समाज मेें बहुपतित्व यानी पॉलन्ड्री एवं अस्थाई विवाह संबंधों को अपनी सभ्यता की पृथक पहचान देने में लगे थे। इतना ही नहीं, उस समय ‘बीमाह-विवाह’ प्रचलन में था जिसके अनुसार पति को पत्नी के ही परिवार में शामिल कर लिया जाता था। इन परिस्थितियों में वंशानुक्रम का निश्चय माता के ही माध्यम से होता था। 

आज अति नारीवादी अवधारणा के बलवती होने का परिणाम ही है कि जीव वैज्ञानिकों का ध्यान पुरूषों में कोख प्रतिरोपण एवं शिशु जनन की दिशा की ओर आकृष्ट हुआ है। इस बिंदु पर शोध भी जारी है। शोध के सफल होने के बाद इसे व्यवहार मेें लाने के लिए समाज एवं कानून की मान्यता की जरूरत होगी। वस्तुतः जीव वैज्ञानिकों द्वारा उपयुक्त शोध किया जाना एक अलग विषय है एवं उसे समाज एवं कानून द्वारा मान्यता मिलना एक पृथक विषय क्योंकि विज्ञान जीवों के परिष्करण एवं उनके समुन्नत कार्य व्यवहार की प्रणाली विकसित करने में अपने अस्तित्व को समाज में प्रतिष्ठापित करने का भरसक प्रयत्न करता है।

पुनः रेडिकल नारीवादी दृष्टिकोण के हिमायती का यह कहना  कि स्त्रियां यौनानंद वह चरमसुख की बजाए कोख में तब्दील होने को लालायित हो उठती हैं, समाज में विभ्रम पैदा करने के लिए काफी है। उन्हें मालूम हो कि प्रकृति ने मानव जाति में स्त्री और पुरूष जाति का निर्माण कर एक में कोख धारण की क्षमता प्रदान की एवं दूसरे में नहीं। क्या होता जब एक ही वर्ग-समूह में शुक्राणु एवं अंडाणुओं की जैविक व्यवस्था होती ? यह तो प्रकृति है जिसने यह महसूस किया कि परस्पर निर्भरता जीवों के संयत संचालन का एक अपरिहार्य तत्व है एवं तदनुरूप वह वैसी व्यवस्थाएं स्त्री एवं पुरूष वर्ग में अधिरोपित कर पायी।

अब वक्त आ गया है कि मानवजाति एक-दूसरे की निम्नतर या श्रेष्ठतर अवस्थाओं रूपी दुष्चक्र से बाहर हो परस्पर निर्भरता की अनिवार्यता को महसूस करे क्योंकि पारस्परिक समर्पण भाव में जहां श्रेष्ठता का भाव छिपा रहता है वही ऐसे सम्यक गुणों को धारण करने वाले व्यक्तित्व ही जीवन के मूल उ६ेश्यों को भली-भांति अपने हृदय में आत्मसात कर पाते हैं एवं ब्रह्मांड की अतिशय विशिष्ट अनुकृति यानी मानव रचना का अनुरक्षण एवं पोषण करते हुए सदकर्म एवं जीवों की प्रभावशीलता को उसकी श्रेष्ठता का आधार स्वीकार करते रहते हैं जो कि प्रकृति विरोधी न होकर ‘प्रकृति मित्र’ प्रतीत होता है। 

जिस वैदिक काल मेें वर्णित तथ्यों का जिक्र करते हुए तर्क दिया जाता है उस काल की स्त्रियां इस सत्य के ज्यादा निकट हुआ करती थीं कि शौर्यवान, वीर्यवान एवं ज्ञानी पुरूषों के सहवास से उन्हीं के समान प्रकृति वाला पुत्र या पुत्री रत्न की प्राप्ति होगी जो समाज में राक्षसी प्रवृति वाले संवेदनहीन जनों से सभ्यता एवं समाज की रक्षा कर पाएंगे। इसके साथ ही यह धारणा उस समाज में ज्यादा बलवती थी कि स्त्रियों द्वारा याचित कामना की पूर्ति करने में सक्षम पुरूष यदि जान-बूझ कर उनकी कामना की पूर्ति नहीं करता है तो उसे भी एक प्रकार से स्त्रियों के अपमान का दंश झेलना पड़ता था। परंतु ठीक इसके विपरीत पुरूषों द्वारा याचित इसी प्रकार की कामना की पूर्ति करने की स्वतंत्रता स्त्रियों को प्राप्त नहीं थी। पुरूषों के इस ढंग की कामना को पाप समझा जाता था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी-न-किसी रूप में इस तथ्य को हम बहुपतित्व प्रथा के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। महाभारत काल में भी द्रौपदी को बहुपतित्व प्रथा की अनुगामी माना जा सकता है। यह विडंबना ही है कि जब एक स्त्री एक से अधिक पतिगामी होती थी तो उस प्रथा को भी रेडिकल नारीवादी सोच रखने वाले स्त्रियों का शोषण ही मानते हैं और इसके विपरीत वर्तमान समाज में जब एक पुरूष एक से अधिक पत्नी का सहगामी बनता है तब उसे पुरूषों द्वारा स्त्रियों का शोषण तो मानते ही हैं।

उनका यह कहना- ‘टेसुएं बहाते रहने और पुरूषों से भीख में दया मांगते रहने से संबल नहीं मिलेगा’ आज उतना प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता। आज स्त्रियां कानून से इतनी संरक्षित है कि पुरूष सामान्य अवस्था में उससे अंदर -ही-अंदर भयभीत ही रहता है। आज का यह भी एक स्याह पक्ष है कि औरतें स्त्री सुरक्षा के लिए बनाये गए कानूनों की आड़ में गलत ढंग से लाभ लेकर पुरूषों को अपमानित, तिरष्कृत करने तथा मुद्रामोचन-भयादोहन करने से भी गुरेज नहीं करतीं। यद्यपि यह अवस्था अभी परिपक्व नहीं हुई है तथापि इसके बीजारोपण परिणामस्वरूप समाज में स्त्री-पुरूष के बीच एक ‘अदृश्य अविश्वास’ का वातावरण निर्मित होने लगा है।

कुल मिलाकर यह समझा जाना चाहिए कि वैचारिक भिन्नताएं अस्तित्व में रहते हुए भी स्त्रियों-पुरूषों के बीच प्राकृतिक रूप से व्याप्त असमानताओं के समूल उन्मूलन की हठधर्मिता समाज के ताने बाने को ही न छिन्न भिन्न कर दे।

कानून और समाज की सहज स्वीकृति के दायरे में रहते हुए अति नारीवादी दर्शन में भी नयी प्रणाली का अनुसंधान अपेक्षित है ताकि सामाजिक-आर्थिक संस्कृति अक्षुण्ण रहे।

(लेखक गिरिडीह, झारखण्ड में सांख्यिकी पदाधिकारी हैं)


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