अश्वत्थामा – लघुकथा
तुमने हताशा में अपने बचाव के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके संसार को संकट में डाल दिया। इस पर मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं अश्वत्थामा! लेकिन मैं आश्चर्यचकित हूँ कि एक महान ज्ञानी पिता के पुत्र होते हुए भी तुमने, सोये हुए पाँडव पुत्रों की हत्या; जैसा घृणित कार्य किया। तुम जैसे योद्धा के हृद्धय में ये विचार पनपा कैसे?” श्री कृष्ण की तीक्ष्ण दृष्टि अश्वत्थामा पर टिकी हुयी थी।
पाँडव पुत्रों की ह्त्या के बाद स्वयं को बचाने के प्रयास और ‘ब्रह्मास्त्र’ के दांव में पराजित होने के बाद अपराधी बना अश्वत्थामा पांडवों और श्री कृष्ण के सम्मुख नजरें झुकाये खड़ा था।
“हे माधव, कुरू वंश के बड़े-बड़े योद्धाओं और कई बंधु-बांधवों की मृत्यु के बाद मैंने पांचों पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली थी लेकिन….” अश्वत्थामा सिर झुकाये कहने लगा। “ये कैसे संभव हो, यही नहीं समझ पा रहा था कि अनायास उस शाम मैंने देखा कि एक उल्लू ने रात्रि में अपने प्रतिद्वन्दी कौवों पर आक्रमण कर उन्हें मार गिराया। बस यहीं से मेरे हृद्धय में विचार आया था वासुदेव पुत्र, लेकिन ये मेरा दुर्भाग्य था कि सोते हुए पांडवों के पुत्रों को पाँच पांडव समझ कर मैंनें अनजाने में उनका वध कर दिया।”
“हे अर्जुन!” श्री कृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुये कहने लगे। “अज्ञानी, असावधान, सोये हुए व्याक्ति और स्त्री तथा बालक, इन सभी को मारना धर्मानुसार वर्जित है। अतः अश्वत्थामा इस धर्म विरुद्ध आचरण करने के कारण पूर्ण रूप से सजा का अधिकारी है।”
“सहमत वासुदेव् पुत्र, लेकिन द्रौपदी द्वारा इसके अपराध को क्षमा करने के बाद भी क्या हमारा इसे सजा देना उचित होगा।”
“हे पार्थ, ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए? इसका निर्णय मैं पूरी तरह तुम्हारे विवेक पर छोड़ता हूँ।”
“जैसी आज्ञा वासुदेव पुत्र!” कहते हुये अर्जुन ने आगे बढ़कर अपनी तलवार से अश्वत्थामा के केश काटते हुये उसके मस्तक से मणि निकाल कर उसे श्रीहीन कर दिया।
“तुम्हारें लिये इतनी ही सजा काफी नहीं अश्वत्थामा!” कहते हुए श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को हजारों वर्षों तक भटकते रहने का श्राप भी दे दिया।
हे कृष्ण!” युद्ध में हारा हुआ योद्धा सदा ही दोषी समान होता है, वर्ना इस महायुद्ध में पूर्ण रूप से निर्दोष और निष्पापी तो कोई भी योद्धा नहीं था और ये बात मैं ही नहीं आने वाली पीढ़ियाँ भी कहेंगी।” अपनी सजा को सुनने के बाद पहली बार अश्वत्थामा ने बोलना प्रारम्भ किया था।” रही बात आपके श्राप की वासुदेव पुत्र, तो मैं तो अपने अपराध के लिए इस श्राप का दंश लिये हजारों वर्षों तक भटकता ही रहूंगा लेकिन आने वाले युगों में तो मानव अपने कन्धों पर अपने अपराधों का बोझ लिए भटकते हुए भी अपने अपराधों को स्वीकार नहीं करेगा कृष्ण… स्वीकार नहीं करेगा।
वीरेंद्र वीर मेहता