
देश की आजादी के 75 साल हो गए परंतु हमारे नेता आज भी आजाद होने को तड़फ रहे हैं। वे जिस पार्टी में रहते हैं, कुछ दिनों बाद ही वहां गुलामी महसूस होने लगती है। आजाद होने के सबके अपने-अपने तर्क हैं।
अतः गुलामी से मुक्त होकर या तो वे पार्टी बदल लेते हैं या फिर नई पार्टी बना लेतेहैं। बहरहाल आजाद होना किसी भी नेता का मौलिक अधिकार होता है। वह नेता ही क्या जिसने कभी पार्टी नबदली हो। जीवन में एक बार नेता बनते ही किसी भी व्यक्ति में पार्टी बदलने का गुण स्वाभाविक रूप से आ जाताहै। नेता पहले किसी एक खास पार्टी से जुड़ता है और फिर उसकी विचारधारा से। यह तभी हो पाता है जब उसकीअपनी कोई विचारधारा न हो। किसी कारण वह किसी नामीगिरामी पार्टी से न जुड़ पाए तो उसका एकमात्र विचारयही होता है कि किसी तरह एक बार चुनाव जीत जाय और एक पंजीकृत नेता हो जाय। इसके लिए वह निर्दलीयबनने का जोखिम उठाने से भी नहीं चूकता।
एक बार उसका पंजीकरण हो गया तो समझो उसे किसी भी पार्टी मेंघुसने का लाइसेंस मिल गया। निर्दलीय जीतने के बाद पहले वह जांचता-परखता है कि कौन-सी पार्टी उसकीआवभगत के लिए पलक पांवड़े बिछाए हुए है। दुर्भाग्य से कोई पार्टी यदि उसमें दिलचस्पी नहीं दिखाती है तो वह स्वयं उस पार्टी का गुणगान करने लगता है जिसमें शामिल होने के लिए वह लालायित रहता है। बस एक बार किसी बड़ी पार्टी में घुस जाय तो समझो उसके भाग्य खुल गए।
अब उसे दूसरा लाइसेंस मिल जाता है, दल बदलने का। दल बदलने के लिए वह हमेशा उचित समय, उचित माहौल, उचित आबोहवा और उचित मौसम की ताक में रहता है जो अक्सर चुनाव के वक्त आता है। चुनाव के समय अपनी मनमर्जी का टिकट न मिलने पर या अपने परिवार के लोगों को पार्टी द्वारा टिकट न दिए जाने पर वह ऐसा कदम उठाता है। जैसे ही उसे यह अवसर प्रदान होता है, वह अपनी पार्टी को बुरा-भला कहने का राग अलापना शुरु कर देता है। पार्टी मजबूरी में उसकी नाखुशी हद की सीमा तक बर्दाश्त करती चली जाती है। जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो पार्टी कुछ नहीं कर पाती, बस दर्दनिवारक खाकर संतोष कर लेती है परंतु नेता का घाव पके फोड़े की तरह फूट ही जाता है और वह पार्टी से त्यागपत्र दे दंता है।
उसकी इस भूमिका में उस दूसरी पार्टी की भूमिका अहम होती है जो एक अर्से से जाल बिछाकर बैठी होती है। जैसे ही नेता ने पार्टी छोड़ी, दूसरी पार्टी उसे लपक लेती है। यह उस मामले में होता है जहां पहले से ही शतरंज की बिसात बिछी होती है। अपितु कुछ नेताओं में आत्मविश्वास इतना कूट कूटकर भरा होता है कि बिन बादल के ही बरस जाते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मूल पार्टी छोड़ते ही दूसरी पार्टियों के नुमांयदे उस पर मक्खियों की तरह भिनभिनाने लगेंगे। हो सकता है कि कुछ दिनों तक नेता दुल्हे की तरह नखरे दिखाए ताकि कुछ दान-दक्षिणा मिल सके।
बदकिस्मती से अगर कोई पार्टी उसे घास नहीं डालती है तो उसमें देशप्रेम की भावना कुलांचे मारने लगती है। वह मीडियावालों से यह कहता फिरता है कि उसने किसी भी पार्टी में जाने का निर्णय अभी नहीं लिया है, हालांकि कई पार्टी के लोग उससे संपर्क साध रहे हैं। वह किसी पार्टी में जाए या न जाए उसका एक ही मकसद है देश और देशवासियों की सेवा करना। सच यह है कि ऐसे नेता गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं और अंततः पार्टी बदलने तक ही सीमित रह जाते हैं। हमारे देश में पंद्रह दिनों के अंदर एक नेता का तीन बार पार्टी बदलने का विश्व रिकार्ड भी बना हुआ है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो चुनाव एक पार्टी से जीतते हैं और मंत्री जाकर दूसरी पार्टी में बन जाते हैं।
वैसे दल बदलते रहने का उनका मनोविज्ञान भी बड़ा सकारात्मक होता है। हमेशा चढ़ते सूरज की पूजा करनी
चाहिए। डूबते सूरज की ओर देखना भी अपशकुन है।

रतन चंद ‘रत्नेश’
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