चमचागिरी या चाटुकारिता का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव-सभ्यता का। यहां तक कि चमचों का उल्लेख अन्य नामों से वेद और पुराणों में भी मिलता है। पूर्वकालिक चमचों में कलात्मक गुणों का प्राचुर्य था और तत्सम्बंधी विनम्र श्रद्धा भी। फलस्वरूप इसका लाभ हर पक्ष को मिलता था, पर कालांतर में इस कला का द्रूत पतन हुआ। परिणामतः आधुनिक चमचे अब अपने स्वार्थ के तईं दूसरों को नुकसान पहुंचाने से भी गुरेज नहीं करते। जिनकी चमचागिरी की जाती है उनका खुश होना स्वाभाविक है। जब देवतागण तक चमचागिरी से खुश रहते हैं तो आम आदमी की क्या बिसात ?
फिर भी कई मायनों में चमचागिरी तकनीकी संशोधनों के साथ आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है। अलबत्ता अब इसके कई परिस्कृत नामकरण हो चुके हैं और इस पर भी पूरी तरह छूट है कि आप खुले मन से इसे कोई भी नाम दें। बहरहाल चमचों को मात देते हुए अब कड़छे कई मामलों में बाजी मार रहे हैं। वाकई अगर चमचागिरी में महारत हासिल करना हो तो इन बड़े-बड़े चमचों के नक्शेकदम पर चलना चाहिए। कई चल रहे हैं और रातोंरात ख्याति अर्जित कर रहे हैं। आधुनिक काल में सबसे पहले ऐसे दो चमचों का बिहार प्रांत में उदय हुआ जिन्होंने लालू-चालीसा लिखकर देश में चमचा-क्रांति का सूत्रपात किया। उनमें से एक क्रांतिकारी को विधानसभा तक पहुंचाकर सम्मानित किया गया। दूसरे ने भी कई लाभ अर्जित किए । नतीजा यह निकला कि बिहार में चालीसा लिखने की होड़ लग गई। कई साहित्यकारों ने भी इस पुण्य-कर्म में आहुति डाली।
हमारे नेताओं को लगने वाली कई व्याधियों में से चाटुकारिता भी एक है। बिना चमचों के उनका भोजन हलक से नीचे नहीं उतरता। यही कारण है कि कई बेनामी संस्थाओं में चमचागिरी का पाठ भी पढ़ाया जाने लगा है। नेताओं द्वारा चमचा-पालन का शौक इसी तरह परवान चढ़ता रहा तो बकायदा शिक्षा-संस्थानों में मान्यताप्राप्त चमचा-प्रबंधन कोर्स के आरंभ किये जाने की प्रबल संभावना है।
नेताओं का हनुमान-चालीसा या रामचरित मानसीकरण चमचागिरी का उत्कृष्ठ प्रमाण है। कुछ चमचे इससे भी आगे बढकर नेत्रियों और नेताओं को देवी-देवता के समकक्ष बिठा देते हैं। अगर देवी-देवता खुश हुए तो पौ बारह। मुरादें पूरी हो जाती हैं। हुए क्या नेता साढ़े सोलह आने खुश होते हैं, चाहे मन-ही-मन हों या खुल्लमखुल्ला। लिहाजा उनका परसाद और आशीर्वाद पाने से कोई चमचा वंचित नहीं रहता। इसी चमचागिरी के चलते कोई नेत्री भारतमाता या देवी दुर्गा बन जाती हैं तो नेतागण ब्रह्मा-विष्णु-महेश। देवी-देवताओं का असली चेहरा किसने देखा है ? इन्हें ही उस रूप में पूज लिया जाय तो क्या फर्क पड़ता है। अब तो आम जनता ही क्या एक नेता ही दूसरे नेता की खड़ाऊं पूजने को मरा जाता है। उनके कहे को ब्रह्मवाणी समझता है और उनकी या उन पर लिखी पुस्तक को महाकाव्य से भी बड़ा घोषित कर देता है। कई बार देखा गया है कि एक ही नेता को कई देवताओं का नाम दे दिया जाता है। कभी वे शिव बन जाते हैं तो कभी विष्णु तो कभी उनके अवतार या ऐतिहासिक महापुरुष। हे मेरे प्यारे चमचो, इन देवताओं का रूप फिल्मी कलाकारों की तरह इस कदर न बदलो कि उनकी कोई इमेज ही न बन पाए। जिसे देवी दुर्गा बनाया, उसे महारानी लक्ष्मीबाई बना देंगे तो भक्तजन मतिभ्रम होंगे ही।
ताजा खबर यह है कि एक पुस्तक को श्रीमद्भागवद्गीता से भी महान बताया जा रहा है। जाहिर है उसका नायक भगवान कृष्ण भी महान होगा। यह कहना गलत नहीं होगा कि उसमें संग्रहित उपदेशों का लाभ उठाकर लोगों का जीवन निस्संदेह सफल हो जाएगा। अतः इस पुस्तक को घर-घर पहुंचाने का उपक्रम किया जाना चाहिए ताकि उसमें दर्ज श्लोक सबको कंठस्थ हो सकें और वे अपना लोक-परलोक सुधार सकें।
रतन चंद ‘रत्नेश’