महंगाई पर अच्छी ख़बर आ रही है। हालिया आंकड़े बता रहे हैं कि खाने-पीने की वस्तुओं और विनिर्मित उत्पादों की कीमतों में नरमी आ गई है। आम लोगों को यह नरमी बेशक न दिखी हो, सरकार राहत की सांस ले रही है। महंगाई घटे या बढ़े, वह किसी-किसी को ही दिखती है । दरअसल महंगाई नाम की कोई चीज ही नहीं होती। यह मात्र एक भ्रम है। कहां है महंगाई?
अगर है तो दिखती क्यों नहीं? मुझे तो आज तक कहीं नहीं दिखी । महंगाई भी अजीब शै है। किसी को दिखती है तो किसी को नहीं दिखती। बाप को दिखेगी तो बेटे को नहीं, सास को दिखेगी तो बहू को नहीं, एक भाई को वह दिखती है और दूसरे भाई को कहीं नजर नहीं आती। वह मुझे कहीं मिल जाती तो जरूर उससे यह सवाल पूछता कि हे देवी! तुम किसी-किसी को ही क्यों दर्शन देती हो? संसद में भी बेहद शरमाते हुए यह कुछ लोगों को ही अपना मुखड़ा दिखाती है। अधिकतर सांसदों को यह चिराग लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलती। सुना है कि वहां की कैंटीन में खाना बड़ा सस्ता मिलता है।
सो संसद-सदस्यों को महंगाई दिखे भी तो भला कैसे? लिहाजा महंगाई के रोने का खेल एक अर्से से बदस्तूर जारी है। पक्ष को महंगाई दिखती नहीं और विपक्ष महंगाई को एक हथियार की तरह जब-तब इस्तेमाल करता रहता है। विपक्ष को जब देशहित में कोई काम नजर नहीं आता तो वह महंगाई का बैनर उठाए सड़क पर उतर आता है। असल में यह महंगाई तो एक बहाना है, सत्तापक्ष को घेरने का सिलसिला पुराना है। इसे बदनसीबी नहीं तो और क्या कहेंगे कि हारी हुई पार्टी को हर चीज महंगी नजर आने लगती है।
आम आदमी बाजार में जाता है तो इसी पशोपेश में रहता है कि महंगाई का जो इतना होहल्ला मचा है, वह सच में कहीं है भी या नहीं? जगह-जगह सस्ते माल बेचे जाने का बोर्ड टंगा नजर आएगा और कहीं-कहीं एक के साथ एक को फ्री देने की होड़ मची रहती है। यदि पेट्रोल इतना ही महंगा हो गया है तो सड़क पर निजी गाड़ियां कम दिखनी चाहिए परंतु इसके उलट हो रहा है। एक अच्छा-खासा पुश्तैनी घर होने के वजाय हर सदस्य नया मकान लेने की ताक में रहता है। सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि महंगाई गर होती तो लोगबाग सिगरेट-शराब जैसी जानलेवा चीजों पर इतना पैसा क्यों लुटाते? बेचारे गरीब आज तक पता नहीं लगा पाए कि महंगाई किस चिड़िया का नाम है।
बाप-दादाओं के जमाने से वे जिस हाल में थे, आज भी उसी हाल में हैं। किसी जमाने में फिल्मों में गाहेबगाहे महंगाई दिख भी जाती थी, आज तो वहां भी ढूंढे नहीं मिलती। धारावाहिकों की बाइयां तक महंगी से महंगी पोशाक और फैशनेबल मुखमुद्रा में होती हैं। वहां कहीं भूलेभटके से भी महंगाई नहीं आती। दरअसल महंगाई कहीं है ही नहीं। रुपया और इनसान सब सस्ते में बिक रहे हैं। वह दिखे भी तो कैसे? बस यह कहने का एक रिवाज-सा बन गया है कि बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई। जिन्हें गाने-बजाने का शौक है, वे ढोल-मजीरा लेकर बैठ जाते हैं और गाने को एक ही गाना मिलता है – ‘सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है।’ नाज़ मुजफ्फराबादी की माने तो – यूं ही इक रोज वो बाजार आया, फिर इसके बाद महंगाई हुई थी।
रतन चंद ‘रत्नेश’