गधे का भ्रम

कुछ सुनी सुनाई कथाओं के बारे में पता नही होता कि उसे सर्व प्रथम किसने कहीं या किसने लिखी। वो यूं ही मौखिक रूप से प्रचलित हो जाती हैं। प्रस्तुत है ऐसी ही एक सुनी सुनाई कथा अपने शब्दों में….

एक गांव में एक आदमी के पास कुछ गधे थे। वो पूरा दिन उनसे काम लेता और शाम को कुछ खिलाने के बाद सभी गधों को अलग अलग रस्सी से बांध देता कि रात में वो कहीं इधर उधर ना चले जांय। सुबह फिर उन को खोलता और कुछ खिलाने के बाद काम पर लगा देता। रोज की यही प्रक्रिया थी। गधे भी अपने इस रोज की प्रक्रिया से अभ्यस्त थे।
एक दिन शाम को जब वो आदमी सभी गधों को बांधने चला तो देखा एक रस्सी गायब है। एक को छोड़कर बाकी गधों को बांध चुका था पर अब आखिरी गधे को कैसे बांधे बिना रस्सी के। उसका भी दिमाग काम नही कर रहा था। गधों के साथ रहते रहते वो भी……तो वो उस गधे का कान पकड़ के यूं ही बैठा था।
उसी समय उधर से गांव के ही एक समझदार व्यक्ति गुजरे। उन्होंने उससे पूछा कि भाई क्या हुआ, गधे का कान पकड़ के क्यों बैठे हो ? पूरी बात सुनकर वो उस आदमी की मूर्खता पर हंस पड़े। उन समझदार व्यक्ति ने उसे सुझाया कि रोज तुम उसे बांधते ही हो, गधा भी ये बात जानता ही है। आज तुम ऐसा करो कि बिना रस्सी के ही ऐसे ही गधे के गर्दन के इधर उधर हाथ और उंगली चलाकर उसे रस्सी से बांधने का नाटक करो। गधा समझ नही पाएगा और अपने आप को बंधा समझेगा।
उस आदमी ने वैसा ही किया और सो गया। सुबह उठा तो सभी गधों के साथ उस ना बंधे हुए गधे को देखकर बहुत खुश हुआ।
सुबह सभी गधों को खोलना था। एक एक करके सब गधों की रस्सी खोलकर वहां से हटाने लगा। अब जब वो बिना बंधे हुए गधे को हटाने चला तो सोचा ये तो बंधा ही नहीं है, इसे क्या खोलना, यूं ही हट जाएगा। पर बहुत जतन करने के बाद भी वो आखिरी गधा टस से मस नहीं हुआ। उस आदमी ने उसे मारा भी पर वो नहीं हटा। उसने सोचा कि ये क्या हो गया इसे, अच्छा खासा तो है पर उठ नहीं रहा।
कुछ ना समझ पाया तो फिर वो गांव के उसी समझदार व्यक्ति के पास गया और अपनी समस्या बताई। उस समझदार व्यक्ति ने उससे कहा कि तुम भी नासमझ ही हो। अरे वो गधा अपने आप को रस्सी से बंधा ही समझ रहा है, जब तक तुम उसे खोलोगे नही तब तक कैसे उठेगा वो। तुमने उसे यूं ही बांधने का नाटक किया था ये तुम्हे ही तो पता है, गधा तो सही सही बंधा समझ रहा है खुद को। ऐसा करो, अब जाओ जिस तरह तुमने शाम को उसे यूं ही बिना रस्सी के ही बांधने का नाटक किया था उसी तरह उसे यूं ही रस्सी से खोलने का नाटक भी करो तभी वो अपने को खुला और स्वतंत्र समझेगा। उस आदमी ने वैसा ही किया और गधा उठकर चल दिया।

( प्रस्तुति / शब्द संयोजन – ब्रजेश श्रीवास्तव )

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