प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस वर्ष स्वाधीनता दिवस के अवसर पर राष्ट्र को किए गए सम्बोधन ने पाकिस्तान को लेकर भारतीय कूटनीति को एक नई दिशा प्रदान की है। इस आउट ऑफ द बॉक्स सोच ने जहां कई विशेषज्ञों को अपना सिर खुजलाने पर मजबूर कर दिया है तो वहीं कई अभी भी इस संदेह में उलझे हैं कि शायद मोदी जी से कहीं शब्दों के उच्चारण में गलती हुई है। इस संदर्भ में पी चिदम्बरम द्वारा एक अङ्ग्रेज़ी समाचार पत्र में लिखे गए लेख का संदर्भ आवश्यक प्रतीत होता है। उन्होंने लिखा है कि ‘संभवतः प्रधानमंत्री बाल्टिस्तान के स्थान पर गलती से बलोचिस्तान बोल गए हैं।‘
पाकिस्तानी हठधर्मिता यह है कि वह आतंकवाद के माध्यम से कश्मीर को समस्या का रूप देकर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की भर्त्सना और निंदा करवा कर उस पर दबाव बनाना चाहता है। भारत को प्रतिरक्षात्मक मुद्रा में धकेलने के पाकिस्तानी रवैये से छुटकारा पाने केलिए भारत के इस नीतिगत परिवर्तन की अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को बहुत दिनों से प्रतीक्षा थी।
चूंकि, स्वाधीनता दिवस के सम्बोधन में बलोचिस्तान और पाक-अधिकृत कश्मीर का ज़िक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्तित्व के द्वारा किया गया है अतः अंतर्राष्ट्रीय विषयों के जानकार इसके निहितार्थ को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह मोदी सिद्धान्त का नया पहलू है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यशैली के अनुरूप तत्काल ही इन विषयों पर देश की नीति को स्पष्ट करते हुए उनको शीघ्रता से लागू करने का प्रयास भी शुरू कर दिया है इसी प्रक्रिया के अंतर्गत पाक-अधिकृत कश्मीर के नागरिकों को भी भारतीय नागरिक मान कर, वहाँ के लोगों को केंद्र सरकार द्वारा विशेष आर्थिक पैकेज की रूप रेखा की घोषणा ने इसे एक नया आयाम प्रदान किया है।
कश्मीर : भारत की नई सोच
पाकिस्तान कश्मीर को जिन्ना की आँखों का स्वप्न मानता है। यही कारण है कि वह भारत से इस मसले पर आधिकारिक तौर पर कारगिल सहित तीन युद्ध कर चुका है। अमरीका को जब तक अफगानिस्तान में पाकिस्तान की आवश्यकता थी उसने उसके आतंकवाद, अनुचित परमाणु प्रसार तस्करी से मुंह मोड़े रखा। किन्तु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब स्थितियों में आमूल-चूल परिवर्तन होगया है। ये दोनों ही मुद्दे अब सीमा तोड़ कर बाहर निकल चुके हैं।
पाकिस्तान द्वारा बोई गई तालिबान, अल-क़ायदा की विषबेल अब पूरे मध्य एशिया में फैल चुकी है।
उसके द्वारा आतंकवाद की मदद से अफगानिस्तान सरकार को कमजोर करने और उस पर कब्जा करने की ललक जग जाहिर होचुकी है। ये आरोप भारत के नहीं बल्कि अफगानिस्तानी शासकों के हैं।
विश्व, पाकिस्तान के हर नजरिए को पहचान गया है:
अमरीका और भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के साथ सामरिक समझौतों से भी अमरीका-पाकिस्तान सम्बन्धों के बीच खाई बढ़ी है। अमरीका, अफगानिस्तान, भारत और ईरान के मध्य सुचारू होते हुए सम्बन्धों ने पाकिस्तान को हाशिये पर खड़ा कर दिया है।
इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है कि कश्मीर के विभिन्न अलगाववादी संगठनों को प्रश्रय देकर पाकिस्तान भारत के इस प्रांत में नई भौगोलिक इबारत लिखने की हर संभव कोशिश कर रहा है। यही कारण है कि 16 दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में तालिबानी आतंकियों द्वारा लगभग 170 निरीह बच्चों की मौत पर पाकिस्तान में काला दिन नहीं मनाया गया। पाकिस्तान में ही हजारों की संख्या में अहमदिया और शियाओं के नरसंहार पर भी पाकिस्तान में काला दिन नहीं घोषित हुआ। पाकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान को सरे-आम 16 अक्तूबर 1951 में गोली से उड़ा दिया गया और पूर्व प्रधान मंत्री बेनज़ीर भुट्टो को 27 दिसंबर 2007 में उसी जगह मिट्टी में मिला दिया गया जहां लियाक़त अली को गोली से उड़ाया गया था। इन दोनों दिन भी पाकिस्तान में काला दिन नहीं मनाया गया। 4 अप्रैल 1979 में जब ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दी गई, वह दिन भी पाकिस्तानी इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज़ नहीं है। 16 दिसंबर 1971 में जब ढाका के रामना रेस-कोर्स उद्यान में 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के सैनिकों के सामने आत्म समर्पण किया था, पाकिस्तान उसे भी काला दिन नहीं मानता। अब इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जाय कि उसे एक ऐसा पड़ोसी मिला है जो अपने 170 बच्चों की मौत को भुला देना चाहता है। वह हजारों की तादाद में मारे गए अपने नागरिकों की मौत को भी याद नहीं रखना चाहता। उसके ही अंग से अलग होकर बंगला देश का बनना उस केलिए काला दिन नहीं है। वह भुट्टो, लियाक़त और बेनज़ीर की मृत्यु को काले दिन के तौर पर नहीं मनाता। उसे ड्रोन हमले में मुल्ला मंसूर के मारे जाने पर दुख होता है। उसे ओसामा की मौत पर सदमा लगता है। उसे भारत के द्वारा आतंकी बुरहान के मारे जाने पर दौरे पड़ने शुरू होते हैं। और वह एक भारतीय आतंकी की मौत को काला दिन घोषित करता है।
बुरहान वानी की मौत से शुरू बुरहान अभी कश्मीर में थमा नहीं है, इसने सत्तर से अधिक बहुमूल्य जीवन को लील लिया है सैकड़ों युवा पत्थरमारी में घायल हुए हैं यही स्थिति सुरक्षाबलों की भी है।
पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के कश्मीरी आतंकवादी की भारतीय सुरक्षाबलों द्वारा मौत और पाकिस्तान द्वारा उस पर शोक प्रकट करना एक ऐसा प्रकरण है जिसे मुल्ला मंसूर की मौत पर पाकिस्तानी खीझ के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए।
कश्मीर समस्या का दोहन:
कश्मीर की स्थानीय राजनैतिक पार्टियों और खुद कॉंग्रेस पार्टी ने कश्मीर के साथ न्याय नहीं किया। उमर अब्दुल्ला सुरक्षित चहरदीवारी में बैठ कर प्रधानमंत्री और महबूबा मुफ़्ती को सलाह या फिर उनपर व्यंग्य ट्वीट कर रहे हैं। ग़ुलामनबी कश्मीर में उन गलियों और सड़कों पर नहीं जाना चाहते जहां से आतंकवादी सुरक्षा बालों पर गोली बरसा रहे हैं या फिर जहां से कश्मीरी पत्थरमारी कर रहे हैं। वे प्रधानमंत्री को द्वंद्व केलिए सदन में खींच कर पटखनी देना चाहते हैं।
कश्मीर की जनता और कश्मीर के नेताओं ने अपने दायित्वों की तिलांजलि दी है। वे कश्मीर समस्या के हल में जान-जोखिम में डाले बिना सारे लाभ अपने हिस्से में कर लेना चाहते हैं, यह कश्मीर की त्रासदी है।
पिछले सत्तर वर्षों में कॉंग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बारी-बारी कश्मीर पर राज्य किया है, क्या कारण है कि इन दलों के नेता स्थानीय मुस्लिम आबादी के पाँच प्रतिशत तबके को देश की मुख्य धारा में नहीं लासके।
कश्मीर : इतिहास से आगे
नेहरू तथा माउन्टबेटन के बीच परस्पर विशेष सम्बंध थे, जो किसी भी भारतीय कांग्रेसी या मुस्लिम नेता के आपस में न थे। माउन्टबेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गर्वनर जनरल बनाया गया, जबकि जिन्ना ने माउन्टबेटन को पाकिस्तान का पहला गर्वनर जनरल मानने से साफ इन्कार कर दिया, जिसका माउन्टेबटन को जीवन भर अफसोस भी रहा। माउन्टबेटन 24 मार्च 1947 से 30 जून 1948 तक भारत में रहे। कश्मीर के प्रश्न पर भी माउन्टबेटन के विचारों को नेहरू ने अत्यधिक महत्व दिया। नेहरू के शेख अब्दुल्ला के साथ भी गहरे सम्बंध थे। शेख अब्दुल्ला ने 1932 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एस.सी किया था। फिर वह श्रीनगर के एक हाईस्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए, परन्तु अनुशासनहीनता के कारण स्कूल से हटा दिये गये। फिर वह कुछ समय तक ब्रिटिश सरकार से तालमेल बिठाने का प्रयत्न करते रहे। आखिर में उन्होंने 1932 में ही कश्मीर की राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहा और “मुस्लिम कान्फ्रेंस” स्थापित की, जो केवल मुसलमानों के लिए थी। परन्तु 1939 में इसके द्वार अन्य पंथों, मजहबों के मानने वालों के लिए भी खोल दिए गए और इसका नाम “नेशनल कान्फ्रेंस” रख दिया तथा इसने पंडित नेहरू के प्रजा मण्डल आन्दोलन से अपने को जोड़ लिया। शेख अब्दुल्ला ने 1940 में नेशनल कान्फ्रेंस के सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में पंडित नेहरू को बुलाया था।
हरि सिंह की दुराकांक्षा : नेहरू-अब्दुल्ला गठजोड़
कश्मीर के डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह (1925-47) से न ही शेख अब्दुल्ला के और न ही नेहरू के सम्बंध ठीक थे। महाराजा हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देख रहे थे। वहीं, शेख अब्दुल्ला “क्विट कश्मीर आन्दोलन” के द्वारा महाराजा को हटाकर, स्वयं शासन संभालने को आतुर थे। जब नेहरू भारत के अंतरिम प्रधानमंत्री बन गए थे, तब एक घटना ने इस कटुता को और बढ़ा दिया था। शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर की एक कांफ्रेस में पंडित नेहरू को आने का निमंत्रण दिया था। इस आयोजन में मुख्य प्रस्ताव था महाराजा कश्मीर को हटाने का।
महाराजा हरि सिंह नेहरू से इस आयोजन में न आने को कहा। नेहरू इस पर सहमत नहीं हुए। नेहरू को जम्मू में ही श्रीनगर जाने से पूर्व रोक दिया गया। पं॰ नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा तथा वे इसे जीवन भर न भूले। ऐसा आरोप है कि पाकिस्तानी फ़ौज व कबायली आक्रमण के समय हरि सिंह को सबक सिखाने के उद्देश्य से नेहरु ने भारतीय सेना को भेजने में जानबूझ के देरी की, जिससे कश्मीर का दो तिहाई हिस्सा पाकिस्तान हथियाने में सफल रहा।
महाराजा हरि सिंह और भारत
जानकारियों के अनुसार जिन्ना कश्मीर तथा हैदराबाद पर पाकिस्तान का आधिपत्य चाहते थे। उन्होंने अपने सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा कश्मीर से मिलने के लिए भेजा। पर महाराजा ने बार-बार बीमारी का बहाना बनाकर बातचीत को टाल दिया। जिन्ना ने गर्मियों की छुट्टी कश्मीर में बिताने की इजाजत चाही। परन्तु महाराजा ने विनम्रतापूर्वक इस आग्रह को टालते हुए कहा था कि वह एक पड़ोसी देश के गर्वनर जनरल को ठहराने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाएंगे। ऐसे में श्री माधवराव गोलवलकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और महाराजा कश्मीर से बातचीत करने 18 अक्टूबर 1947 को श्रीनगर पहुंचे। विचार-विमर्श के पश्चात महाराजा कश्मीर अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए पूरी तरह पक्ष में हो गए थे।
कश्मीर-पाकिस्तान-नेहरू
पाकिस्तान की स्वतंत्रता और 1947 में भारत के विभाजन से पहले, महाराजा हरि सिंह ने अपना राज्य गिलगिट और बाल्टिस्तान तक बढ़ाया था। विभाजन के बाद, संपूर्ण जम्मू और कश्मीर, एक स्वतंत्र राष्ट्र बना रहा। 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के अंत में संघर्ष विराम रेखा (जिसे अब नियंत्रण रेखा कहते हैं) के उत्तर और पश्चिम के कश्मीर के भागों के उत्तरी भाग को उत्तरी क्षेत्र (72,971 वर्ग किमी) और दक्षिणी भाग को आज़ाद कश्मीर (13,297 वर्ग किमी) के रूप में विभाजित किया गया। उत्तरी क्षेत्र नाम का प्रयोग सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र ने कश्मीर के उत्तरी भाग की व्याख्या के लिए किया। 1963 में उत्तरी क्षेत्रों का एक छोटा हिस्सा जिसे शक्स्गम घाटी कहते हैं, पाकिस्तान द्वारा अनंतिम रूप से जनवादी चीन गणराज्य को सौंप दिया गया।
पाकिस्तान द्वारा बल प्रयोग से कश्मीर हथियाने की साजिश
22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना के साथ कबाइलियों ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। ऐसा आरोप है कि कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन रही। अंततः 24 अक्टूबर को माउन्टबेटन ने “सुरक्षा कमेटी” की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता देने का निर्णय नहीं किया गया। 26 अक्टूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई। अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार 26 अक्टूबर को सरदार पटेल ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद 27 अक्टूबर को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई। भारत की सेनाएं जब कबाइलियों को खदेड़ रही थीं तो युद्ध विराम कर दिया गया। परिणामस्वरूप कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलगिट आदि क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के कब्जे में रह गए, जो आज भी “आजाद कश्मीर” के नाम से पुकारे जाते हैं।
जानकारों के अनुसार नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा 370 को जोड़ कर कश्मीर समस्या को स्थायी कर दिया। डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को जोड़ने से मना कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार प्रधानमंत्री नेहरू ने रियासत के राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्टूबर 1949 को यह प्रस्ताव रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई। कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने।
डॉ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां ऐसा आरोप है कि जेल में उनकी हत्या कर दी गई।
प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने मोहम्मद अली जिन्ना से विवाद जनमत-संग्रह से सुलझाने की पेशक़श की थी, जिसे जिन्ना ने उस समय ठुकरा दिया था क्योंकि उनको पूरा भरोसा था कि पाकिस्तानी सेना पूरे कश्मीर पर कब्जा कर लेगी किन्तु उनकी इच्छा के विपरीत अङ्ग्रेज़ी जनरल ने कश्मीर में अपनी डिवीज़न को जाने से रोक दिया। जब भारतीय सेना ने राज्य का काफ़ी हिस्सा बचा लिया और ये विवाद संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया तो संयुक्तराष्ट्र महासभा ने दो संकल्प पारित किये। पहला, पाकिस्तान तुरन्त अपनी सेना कश्मीरी हिस्से से खाली करे और दूसरा, शान्ति होने के बाद दोनों देश कश्मीर के भविष्य का निर्धारण वहाँ की जनता की इच्छा के हिसाब से करेंगे।
दोनो में से कोई भी संकल्प अभी तक लागू नहीं हो पाया है।
भारतीय पक्ष
जम्मू और कश्मीर की लोकतान्त्रिक और निर्वाचित संविधान-सभा ने 1957 में एकमत से महाराजा के विलय के काग़ज़ात को हामी दे दी और राज्य का ऐसा संविधान स्वीकार किया जिसमें कश्मीर के भारत में स्थायी विलय को मान्यता दी गयी थी।
कई चुनावों में कश्मीरी जनता ने मतदान कर भारत का साथ दिया है।
भारत पाकिस्तान के दो-राष्ट्र सिद्धान्त को नहीं मानता। भारत स्वयं पंथनिरपेक्ष है।
कश्मीर का भारत में विलय ब्रिटिश “भारतीय स्वातन्त्र्य अधिनियम” के तहत क़ानूनी तौर पर सही था।
पाकिस्तान अपनी भूमि पर आतंकवादी शिविर चला रहा है (ख़ास तौर पर 1989 से) और कश्मीरी युवकों को भारत के ख़िलाफ़ भड़का रहा है। ज़्यादातर आतंकवादी स्वयं पाकिस्तानी नागरिक (या तालिबानी अफ़ग़ान) ही हैं और ये कुछ कश्मीरियों से मिलकर इस्लाम के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ जिहाद चला रहे हैं। लगभग सभी कश्मीरी पंडितों को आतंकवादियों ने कश्मीर से बाहर निकाल दिया है और वो शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं।
राज्य को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत स्वायत्ता प्राप्त है। कोई ग़ैर-कश्मीरी यहाँ ज़मीन नहीं ख़रीद सकता। उम्मीद है कि बहुत जल्द ये अनुच्छेद जनमत से हटा दिया जाएगा.
पाकिस्तानी पक्ष
दो-राष्ट्र सिद्धांत के तहत कश्मीर मुस्लिम बहुल होने के नाते पाकिस्तान में जाना चाहिये था। विकल्प होने पर हर कश्मीरी पाकिस्तान ही चुनेगा, क्योंकि वो भारत से नफ़रत करता है।
भारत ने संयुक्त राज्य की नाफ़रमानी की है और डरता है कि अगर जनमत-संग्रह हुआ तो कश्मीरी जनता पाकिस्तान को ही चुनेगी।
कानूनी तौर पर कश्मीर के महाराजा द्वारा भारत में विलय ग़लत था क्योंकि महाराजा ने ये विलय परेशानी की स्थिति में किया था।
पाकिस्तान की मुख्य नदियाँ कश्मीर से आती हैं, जिनको भारत कभी भी रोक सकता है।
क्या है पाक-अधिकृत कश्मीर में आतंकवाद प्रभावितों का आर्थिक पैकेज
कश्मीर मामले में पाकिस्तान को उसके ही घर में घेरने की कूटनीतिक रणनीति के तहत भारत अब उसकी दुखती रग पर और मजबूती से हाथ रखने की तैयारी में हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक देश के बंटवारे-1947, वर्ष 1965 और 1971 के युद्ध के दौरान पाक-अधिकृत कश्मीर, गिलगिट-बाल्टिस्तान से विस्थापितों के लिए सरकार ने 2000 करोड़ रुपए के पैकेज की रूपरेखा तैयार कर ली है।
इस पैकेज के अंतर्गत करीब 36,348 कश्मीरी शरणार्थियों की पहचान भी कर ली है। जानकारी के अनुसार आर्थिक पैकेज संबंधी मसौदा सितंबर महीने में केंद्रीय कैबिनेट के विचारार्थ पेश किए जाने की योजना है जिसकी मंजूरी के बाद प्रत्येक विस्थापित परिवार को साढ़े पाँच लाख रुपये दिए जाएंगे। सूत्रों के अनुसार पैकेज पर काम कर रहे अधिकारियों को उम्मीद है कि कैबिनेट से एक महीने के अंदर पैकेज को मंजूरी मिल जाएगी और लाभार्थियों में फंड बांट दिया जाएगा। ये सभी शरणार्थी पश्चिमी पाकिस्तान, खासकर ज्यादातर पाक-अधिकृत कश्मीर के हैं जो जम्मू, कठुआ और राजौरी जिलों के विभिन्न हिस्सों में बस गए हैं। हालांकि जम्मू-कश्मीर के संविधान की शर्तों के मुताबिक, ये सभी राज्य के स्थायी निवासी नहीं हो सकते।
इसके अलावा सूत्रों के अनुसार सरकार बेंगलुरू में होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस में भी पाक-अधिकृत कश्मीर के प्रतिनिधियों को आमंत्रित करने का मन बना रही है। विदेश मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस फैसले पर भी लगभग सहमति बन चुकी है।
ये सभी विस्थापित लोकसभा चुनाव में तो मतदान कर सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं है। केंद्र सरकार अब विधानसभा चुनाव में भी उन्हें मताधिकार दिलाने के लिए भी राज्य सरकार को राजी करने में जुटी है। इसके अलावा प्रवासी दिवस पर पाक-अधिकृत कश्मीर के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किए जाने पर सरकार में मंथन का दौर पूरा हो गया है।
कश्मीर के प्रकरण में घटनाचक्र काफी तेज़ी से घूम रहा है।
पाकिस्तान, भारतीय आक्रामकता और उसके अमरीका के साथ बढ़ते सामरिक सम्बन्धों से खासा परेशान है। भारत-अफगानिस्तान और अमरीका द्वारा उस पर आतंकवाद को लेकर लगाए जा रहे आरोप, अमरीकी सहायता राशि में कटौती और संदिग्ध भविष्य पाकिस्तानी प्रशासन की नींद उड़ाने केलिए काफी है।
निश्चय ही कश्मीर को लेकर नया मोदी सिद्धान्त समस्या की जड़ (पाकिस्तान) को निर्मूल करने का नया अध्याय साबित होगा।
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भारत-अमरीका सैन्य समझौता : पाकिस्तान-चीन की चिंता
पाकिस्तान के प्रतिस्थित अङ्ग्रेज़ी समाचारपत्र डॉन ने भारत और अमेरिका द्वारा 29 अगस्त 2016 को किए गए सैन्य समझौते को पाकिस्तान और चीन केलिए एक बड़ा सिर दर्द माना है। समाचारपत्र के अनुसार इस समझौते से पाकिस्तान और चीन पर सीधा प्रभाव पड़ेगा।
सामान्य रूप से अमरीका अन्य देशों के साथ लोजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए) करता है। किन्तु भारत के साथ किया गया समझौता लोजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट, इसके तहत दोनों सहयोगी देश एक-दूसरे के मिलिट्री सुविधाओं का उपयोग कर सकेंगे। डॉन समाचारपत्र की चिंता है कि इस के अंतर्गत अमरीकी सेनाएँ भारतीय मिलिट्री प्रतिष्ठानों से पूरे विश्व पर निगाह रख सकेंगी।
समाचारपत्र ने प्रतिष्ठित फोर्ब्स पत्रिका के “चीन और पाकिस्तान होशियार- इस सप्ताह भारत और अमरीका एक बड़े युद्ध समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे” शीर्षक का विशेष रूप से उल्लेख किया है। अनुमान है कि अमरीका अपने नौवहन बेड़े का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा हिन्द-प्रशांत महासागर में तैनात करेगा।
समझौते पर हस्ताक्षर के बाद जारी साझा बयान में कहा गया कि उन्होंने इस महत्व पर जोर दिया कि यह व्यवस्था रक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार सहयोग में नवोन्मेष और अत्याधुनिक अवसर प्रदान करेगा। अमेरिका ने भारत के साथ रक्षा व्यापार और प्रौद्योगिकी को साझा करने को निकटम साझेदारों के स्तर तक विस्तार देने पर सहमति जताई है। बयान में कहा गया है कि दोनों देशों के बीच रक्षा संबंध उनके ‘साझा मूल्यों एवं हितों’ पर आधारित है।
भारत-अमेरिका के बीच हुआ ये समझौता चीन की चिंता बढ़ा सकता है। इसे चीन की बढ़ती नौसेना के जवाब में भारत-अमेरिका का दांव भी माना जा रहा है। चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि बेशक यह भारत-अमेरिका सैनिक समझौते में बड़ी छलांग है लेकिन इससे भारत अमेरिका का पिछलग्गू बनकर रह जाएगा। भारत अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता खो देगा। अमेरिका जानबूझकर ऐसे कदम उठा रहा है ताकि चीन पर दबाव बनाया जा सके।