गंगा की आत्मकथा

मेरा नाम गंगा है।

मैं काफी लंबे समय से पृथ्वी पर आने के लिए तपस्या कर रही थी।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मैं भागीरथ जी के प्रयास से धराधाम पर अवतरित हो पायी। मैं ही स्वर्गलोक में ‘मंदाकिनी’ हूँ और पाताललोक में ‘भागीरथ’।

लोग तो मुझे सबसे पवित्र मानते है लेकिन बहुत सारे लोग मेरी गरिमा एवं मर्यादा का अपमान करते हैं, मेरे तट पर कहीं-कहीं इतनी गंदगी होती है कि मैं भावविह्वल हो जाती हूँ। क्या कहूँ लोगों के कष्ट को देखकर मेरी आँखों से आँसू की अविरल धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है।

मैं सम्पूर्ण मानव जाति के कष्ट को तुरंत हर लेना चाहती हूँ। मैं जड़ और चेतन सभी में चेतनता देखती हूँ और इन सभी से संवेदनशीलता की अपेक्षा भी रखती हूँ। लोग मुझे माँ भी कहते हैं और मैं सभी को पुत्रवत स्नेह से सिंचित करती हूँ। लेकिन मेरी भी कुछ लाचारी हैं,कुछ मजबूरियाँ है हृदय विह्वल हो उठता है, आत्मा रो पड़ती है जब मैं अपने तट पर अंतिम संस्कार हेतु लाये गए मनुज को देखती हूँ।

मैं अपने स्पर्श मात्र से भौतिक शरीर को तो पवित्र कर देती हूँ,आत्मा और विचारों को भी पवित्र करने का प्रयास करती हूँ लेकिन लोगों के विचार एवं उनकी मानसिकता इतनी कलुषित हो चुकी है कि लोग उसे भौतिक रूप से पवित्र रहने नहीं देते।

मैं चाहती हूँ कि सभी आत्मा से पवित्र हो जाएँ, सभी के विचार इतने शुद्ध हों कि यह धरा ‘धाम’ बन जाए,सभी लोग सुखी हों, सभी निरोग हों-
‘सर्वे भवंतु सुखिनः,सर्वे संतु निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभाग भवेत।।’

आद्या शक्ति
कक्षा-11’सी’ कला, उर्सुलाइन इंटर कॉलेज, राँची।

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